खबर - प्रशांत गौड़
एक फरमान ने पलट दी हजारों मजदूरों की जिंदगी
पहले मिलते थे 500 रुपए, अब 100 के नोट तक दुर्लभ
प्लास्टिक करेंसी इनको नहीं मालूम
जयपुर । नोटबंदी के बाद रियल एस्टेट में मंदी की मार आने से
हजारों मजदूरों को दो जून की रोटी का जुगाड़ कर पाना मुश्किल हो गया है।
नागौर से मजदूरी करने आए छोटूलाल को तीन दिन से कोई काम नहीं मिला है। इसका
परिवार दिहाड़ी मजदूरी पर निर्भर है। नोटबंदी के कारण काम एक चौथाई नहीं
रहा है। छोटू को कोई नया काम नहीं मिल रहा है। यह हालत राजधानी में मजदूरी
करने आए हजारों मजदूरों की है। नोटबंदी के बाद घर खर्च चला पाना मुश्किल
हो गया है। किसी तरह दो वक्त की रोटी के जुगाड़ में यह परिवार लगे दिखाई
देते हैं।
राजधानी में जगह-जगह चौखटियों पर खड़े होने वाले
दिहाड़ी मजदूरों की यही कहानी है। जो मजदूर किसी बिल्डर या फर्म के यहां
काम कर रहे हैं वो ही इस मंदी के दौर में जैसे-तैसे घर खर्च चला पा रहे
हैं। हर चौखटी पर सैकड़ों मजदूरों की भीड़ दिखती है। किसी भी चौपहिया या
दोपहिया वाहन के इनके पास रुकने पर इनकी आंखों में चमक आ जाती है और लपककर
सारे मजदूर उसी तरफ दौड़ पड़ते हैं। मजदूर एक या दो चाहिए, लेकिन गाड़ी के
आसपास 50 से 60 मजदूर इकट्ठे हो जाते हैं। इसमें मालिक को तलाश मजबूत युवा
मजदूर की रहती है जो पूरे दिन में ज्यादा काम कर सके। वहीं काम कम होने के
कारण कम मोल-भाव में भी काम करना मजबूरी है।
शहर में जगह-जगह
चौखटी पर काम करने वाले मजदूरों की भरमार है, लेकिन पूरे दिन में कुछ की
किस्मत अच्छी होती है जिन्हें पूरे दिन की दिहाड़ी मिल जाती है। जिन
मजदूरों को सुबह 11 बजे तक कोई काम नहीं मिलता है, वह फिर छोटे-मोटे काम की
तलाश में लग जाते हैं ताकि 100 या 200 रुपए कमाकर परिवार को खाना तो खिला
सकें। कोई आधे दिन की मजदूरी पर काम करता है तो कोई होटल, रेस्टोरेंट में
छोटे-मोटे काम की तलाश में रहता है।
वीटी रोड पर नहीं छंटती
भीड़: नोटबंदी से पहले मानसरोवर वीटी रोड पर मजदूरों की भीड़ सुबह 9 से
9.30 के बाद आधी भी नहीं रहती। इन मजदूरों के दिहाड़ी खरीदारों की भीड़
जुटती है लेकिन अब इस मेले में मजदूरी देने वाले कुछ ही लोग दिखते हैं।
सुबह 11 बजे तक सैकड़ों मजदूरों की भीड़ दिखाई देती है। जिनको मजदूरी मिल
गई उन पर लगता है कि गोविंद की महर हो गई और जिनको नहीं मिली, उनके लिए फिर
रोटी के लिए नई जंग शुरू हो जाती है। चूरू से मजदूरी करने आए किशन सैनी ने
बताया कि गांव में कोई काम नहीं है तो मजदूरी की तलाश में शहर में आ गए।
बीवी-बच्चे यहीं तिरपाल लगाकर रहते हैं, लेकिन बीते एक सप्ताह में तीन बार
ही मजदूरी मिली। अब परिवार का खर्चा कैसे चलाएं।
रेट घटी और बोली
लगाने वाले कम: पहले 400 से 500 की बोली बेलदार की लगती थी तो कारीगर को
600 से 700 मिल जाते थे, लेकिन मंदी के दौर में कोई 400 भी देने को तैयार
नहीं है। ऐसे में पुराने समय जो बेलदार को 300 और कारीगर को 400 से 450 की
दर थी, उस पर काम करना पड़ रहा है। सोडाला मजदूर नगर के पास और गुर्जर की
थड़ी पर इसी तरह की मंदी का आलम दिखता है।
उधारी पर बिल्डर दिला
रहे सामान: शहर में बिल्डर्स पर सबसे ज्यादा नोटबंदी का असर दिखा है। नई
करेंसी बाजार में अभी तक नहीं दौडऩे के कारण मजदूरों को तन्ख्वाह दे पाना
मुश्किल हो रहा है। मजदूरों की संख्या में छंटनी हो चुकी है और जो बचे हैं
उनको भी वेतन किस्तों में दिया जा रहा है, जबकि कई बिल्डर्स अपने कारीगरों
को दुकानों से उधारी में सामान दिला रहे हंै जिसमें प्रतिदिन सामान खरीदने
की लिमिट तय है ताकि इस दौर में उनका परिवार भूखे मरने की नौबत में नहीं
आए। धर्मकांटा न्यू सांगानेर रोड पर काम कर रहे रामलाल ने बताया कि वह एक
बड़ी डेवलपर्स फर्म में काम करता है लेकिन मंदी के दौर में मालिक नई करेंसी
देने के बजाय दुकानदार से उधार सामान दिलवा रहे हैं जिसमें जैसे तैसे घर
खर्च चल पाता है।
पेटीएम, न प्लास्टिक करेंसी: देश में इस समय
मंदी के दौर में ज्यादा प्रचलित हुई पेटीएम और प्लास्टिक करेंसी का सहारा
लेने की बात सरकार भी कह रही है लेकिन मजदूरी करने वाले लोग बैंक से कैश
निकालना नहीं जानते हैं तो एटीएम, पेटीएम या प्लास्टिक करेंसी उनकी समझ से
परे है। ऐसे लोगों के पास एटीएम का मतलब दिहाड़ी मजदूरी है, जिसके लिए
उन्हें अब दर-दर भटकना पड़ रहा है। कुछ ने इस कारण पुन: गांव का रुख किया
है। उनको यह भी नहीं मालूम कि नोटबंदी से कालाधन बाहर आएगा। इन मजदूरों को
चिंता अपना पेट भरने की है जिसके लिए अब पहले से कहीं ज्यादा मशक्कत करनी
पड़ रही है।
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