जो जितना अधिक चित्त से शुद्ध-बुद्ध होता है उसकी वाणी भी उतनी ही अधिक प्रभावी होती है। इसके पीछे सत्य का संबल होता है और जितना अधिक शुचिता का भाव होता है उतनी अधिक हमारी वाणी की धार पैनी होती है।
शैशव से ही यदि कोई इंसान सत्य को स्वीकार कर ले तो उसे जिन्दगी भर उस महान आनंद की प्राप्ति हो सकती है जो संसार के लिए दुर्लभ और अलौकिक है तथा इसे पाना अत्यन्त कठिन होता है।
लेकिन होता यह है कि जैसे-जैसे हम लोग संसार की माया में पड़ने लगते हैं और माया का काला या सुनहरा आवरण हमारे आभामण्डल को भेदकर हमारे मन-मस्तिष्क और शरीर को ग्रसित कर लेता है तब हमारी बौद्धिक क्षमताएं अपवित्र हो जाया करती हैं।
चित्त की शुद्धता और कार्यसिद्धि का सीधा संबंध वाणी से होता है। वाणी का प्रभाव तभी साफ-साफ देखा जा सकता है कि जब हम सत्य का पालन करें।
जो लोग सत्य का अनुपालन करते हैं उन लोगों के चित्त में संकल्प उठते ही कार्य सिद्धि होने लगती है। कारण साफ है कि संकल्प तभी आकार लेता है जब उसे सत्य की ऊर्जा प्राप्त हो, ऎसा नहीं होने पर हम चाहें जो कुछ कह दें, उसका कुछ भी असर नहीं हो सकता।
इस स्थिति में हमारा संकल्प फुस्स साबित होता है और जो बची-खुची ऊर्जा होती है वह भी बिना कुछ उपलब्धि पाए खर्च हो जाती है।
जो लोग सत्य बोलते हैं वे लोग जीवन में परेशानी का अनुभव कर सकते हैं लेकिन आनंद में रहते हैं और अपनी फक्कड़ी में जीते हुए औरों के मुकाबले अलग ही मस्ती पाते रहते हैं।
चित्त की शुद्धता जितनी अधिक होगी उतना अधिक संकल्प सिद्धि का अनुभव होगा। इस दृष्टि से यह जरूरी है कि हम लोग साफ कहें, सत्य का आचरण करें और सत्य का ही आश्रय पाएं।
आमतौर पर हम लोग छोटी-छोटी बातों, ऎषणाओं और स्वार्थों में रमे रहकर झूठ पर झूठ का सहारा लेते हैं। एक बार झूठ का आश्रय पा लेने के बाद झूठ को छिपाने के लिए भी झूठ का ही सहारा लेना पड़ता है और इस तरह हमारी पूरी जिन्दगी में झूठ की अविराम श्रृंखला बन जाती है और इसी झूठ के ताने-बानों का पाश हमारे आभामण्डल के चारों ओर धुंध की तरह इस कदर छाया होता है कि हमें झूठ के सिवा कुछ नहीं दिखता, झूठ पर ही भरोसा हो जाता है और सच जाने कहाँ दुबका रहता है अथवा पलायन कर चुका होता है।
हम सभी लोग और किसी में माहिर हों न हों, झूठ बोलने और झूठे काम करने में इतने अधिक सिद्ध हो गए हैं कि हमें झूठ बोलना न तो सीखना पड़ता है, न इसे अपनाने के लिए कोई मेहनत करनी होती है।
हमें लगता है कि हमारे जीवन की रोजमर्रा की आदतों की तरह यह हो गया है। फिर झूठ का बोलबाला और झूठों की विस्फोटक संख्या में बढ़ोतरी और जमावड़ा इतना अधिक हो गया है कि सच्चों और अच्छों की संख्या नगण्य होने लगी है।
अब तो सार्वजनिक जीवन में झूठ इतना अधिक प्रतिष्ठित हो गया है कि लोग झूठ ही झूठ को अपनाने लगे हैं। उन्हें झूठी बातें कहने में शर्म तक नहीं आती।
नालायकों, नुगरों और निकम्मों को हम कर्मयोगी, निष्ठावान और समर्पित कह डालने में जरा भी हिचकते नहीं। जिनके बारे में यह आम है कि वे भ्रष्ट, बेईमान, शोषक, अन्यायी और अत्याचारी हैं उनके लिए भी हम ईमानदार, हर दिल अजीज, लोकमंगलकारी और सेवाभावी कहते रहते हैं।
बात चाहे किसी समारोह की हो या रिटायरमेंट कार्यक्रम की, या फिर शोकसभा की ही क्यों न हो, अधिकांश मामलों में हम नालायकों और दुष्टों को अच्छा बताते रहते हैं।
कोई यह नहीं कहता कि अमुक आदमी महान नालायक था और उसने जिन्दगी भर भ्रष्टाचार और काली कमाई जमा की, कभी ढंग से ड्यूटी नहीं की, ड्यूटी की बजाय दूसरे काम ज्यादा करते हुए समाज और देश को नुकसान पहुंचाया।
पता नहीं नालायकों और हरामखोरों के महिमा मण्डन से हमें क्या मिलता है। कुछ मिले या न मिले लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि से सोचा जाए तो यह साफ कहना होगा कि जो जैसा है उसके बारे में वैसा ही बोलना चाहिए। चाहे वह इंसान जिन्दा हो या मरा हुआ।
अपनी ओर से न नमक-मिर्च लगाएं, न चाशनी के फव्वारों की बारिश करें। समाज का दुर्भाग्य है कि हम अच्छों को अच्छा कह पाने में शर्म, हिचक और दूसरों से भय को महसूस करते हैं और बुरे लोगों को इतना अधिक ऊँचा चढ़ा देते हैं जैसे कि वे हमारे माँ-बाप, दादे-परदादे या पालनहार ही हों।
इसका नुकसान समाज को यह हो रहा है कि गधे घोड़ों के रूप में ही नहीं बल्कि ऎरावत के रूप में पूजे जाने को उतावले हैं, उल्लूओं की पूरी की पूरी जमात हाथ में मशाले लिए औरों को रोशनी दिखाने का दम भर रही है और किसम-किसम के कुत्ते स्वस्तिवाचन करते हुए प्रतीत होते हैं।
अपने हमाम में नंगे कई सारे महावत अंकुश लिए सभी को नचाते हुए मर्यादाओं और अनुशासन की सीख दे रहे हैं और पेट को पिटारा और घर को भोग-विलासी संसाधनों का कबाड़ बनाए हुए लोग अपरिग्रह की सीख दे रहे हैं।
हालात सब जगह खराब हैं, होने दो। खुद को देखें, परिवर्तन लाएं। जो अच्छे हैं वे सच्चे बने रहें और यह प्रण ले लें कि आयन्दा खरा-खरा ही सुनेंगे और खरी-खरी कहने में जरा भी नहीं हिचकेंगे, चाहे सामने कोई कितने ही होर्स या डॉग पॉवर का इंसान क्यों न हो।
शैशव से ही यदि कोई इंसान सत्य को स्वीकार कर ले तो उसे जिन्दगी भर उस महान आनंद की प्राप्ति हो सकती है जो संसार के लिए दुर्लभ और अलौकिक है तथा इसे पाना अत्यन्त कठिन होता है।
लेकिन होता यह है कि जैसे-जैसे हम लोग संसार की माया में पड़ने लगते हैं और माया का काला या सुनहरा आवरण हमारे आभामण्डल को भेदकर हमारे मन-मस्तिष्क और शरीर को ग्रसित कर लेता है तब हमारी बौद्धिक क्षमताएं अपवित्र हो जाया करती हैं।
चित्त की शुद्धता और कार्यसिद्धि का सीधा संबंध वाणी से होता है। वाणी का प्रभाव तभी साफ-साफ देखा जा सकता है कि जब हम सत्य का पालन करें।
जो लोग सत्य का अनुपालन करते हैं उन लोगों के चित्त में संकल्प उठते ही कार्य सिद्धि होने लगती है। कारण साफ है कि संकल्प तभी आकार लेता है जब उसे सत्य की ऊर्जा प्राप्त हो, ऎसा नहीं होने पर हम चाहें जो कुछ कह दें, उसका कुछ भी असर नहीं हो सकता।
इस स्थिति में हमारा संकल्प फुस्स साबित होता है और जो बची-खुची ऊर्जा होती है वह भी बिना कुछ उपलब्धि पाए खर्च हो जाती है।
जो लोग सत्य बोलते हैं वे लोग जीवन में परेशानी का अनुभव कर सकते हैं लेकिन आनंद में रहते हैं और अपनी फक्कड़ी में जीते हुए औरों के मुकाबले अलग ही मस्ती पाते रहते हैं।
चित्त की शुद्धता जितनी अधिक होगी उतना अधिक संकल्प सिद्धि का अनुभव होगा। इस दृष्टि से यह जरूरी है कि हम लोग साफ कहें, सत्य का आचरण करें और सत्य का ही आश्रय पाएं।
आमतौर पर हम लोग छोटी-छोटी बातों, ऎषणाओं और स्वार्थों में रमे रहकर झूठ पर झूठ का सहारा लेते हैं। एक बार झूठ का आश्रय पा लेने के बाद झूठ को छिपाने के लिए भी झूठ का ही सहारा लेना पड़ता है और इस तरह हमारी पूरी जिन्दगी में झूठ की अविराम श्रृंखला बन जाती है और इसी झूठ के ताने-बानों का पाश हमारे आभामण्डल के चारों ओर धुंध की तरह इस कदर छाया होता है कि हमें झूठ के सिवा कुछ नहीं दिखता, झूठ पर ही भरोसा हो जाता है और सच जाने कहाँ दुबका रहता है अथवा पलायन कर चुका होता है।
हम सभी लोग और किसी में माहिर हों न हों, झूठ बोलने और झूठे काम करने में इतने अधिक सिद्ध हो गए हैं कि हमें झूठ बोलना न तो सीखना पड़ता है, न इसे अपनाने के लिए कोई मेहनत करनी होती है।
हमें लगता है कि हमारे जीवन की रोजमर्रा की आदतों की तरह यह हो गया है। फिर झूठ का बोलबाला और झूठों की विस्फोटक संख्या में बढ़ोतरी और जमावड़ा इतना अधिक हो गया है कि सच्चों और अच्छों की संख्या नगण्य होने लगी है।
अब तो सार्वजनिक जीवन में झूठ इतना अधिक प्रतिष्ठित हो गया है कि लोग झूठ ही झूठ को अपनाने लगे हैं। उन्हें झूठी बातें कहने में शर्म तक नहीं आती।
नालायकों, नुगरों और निकम्मों को हम कर्मयोगी, निष्ठावान और समर्पित कह डालने में जरा भी हिचकते नहीं। जिनके बारे में यह आम है कि वे भ्रष्ट, बेईमान, शोषक, अन्यायी और अत्याचारी हैं उनके लिए भी हम ईमानदार, हर दिल अजीज, लोकमंगलकारी और सेवाभावी कहते रहते हैं।
बात चाहे किसी समारोह की हो या रिटायरमेंट कार्यक्रम की, या फिर शोकसभा की ही क्यों न हो, अधिकांश मामलों में हम नालायकों और दुष्टों को अच्छा बताते रहते हैं।
कोई यह नहीं कहता कि अमुक आदमी महान नालायक था और उसने जिन्दगी भर भ्रष्टाचार और काली कमाई जमा की, कभी ढंग से ड्यूटी नहीं की, ड्यूटी की बजाय दूसरे काम ज्यादा करते हुए समाज और देश को नुकसान पहुंचाया।
पता नहीं नालायकों और हरामखोरों के महिमा मण्डन से हमें क्या मिलता है। कुछ मिले या न मिले लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि से सोचा जाए तो यह साफ कहना होगा कि जो जैसा है उसके बारे में वैसा ही बोलना चाहिए। चाहे वह इंसान जिन्दा हो या मरा हुआ।
अपनी ओर से न नमक-मिर्च लगाएं, न चाशनी के फव्वारों की बारिश करें। समाज का दुर्भाग्य है कि हम अच्छों को अच्छा कह पाने में शर्म, हिचक और दूसरों से भय को महसूस करते हैं और बुरे लोगों को इतना अधिक ऊँचा चढ़ा देते हैं जैसे कि वे हमारे माँ-बाप, दादे-परदादे या पालनहार ही हों।
इसका नुकसान समाज को यह हो रहा है कि गधे घोड़ों के रूप में ही नहीं बल्कि ऎरावत के रूप में पूजे जाने को उतावले हैं, उल्लूओं की पूरी की पूरी जमात हाथ में मशाले लिए औरों को रोशनी दिखाने का दम भर रही है और किसम-किसम के कुत्ते स्वस्तिवाचन करते हुए प्रतीत होते हैं।
अपने हमाम में नंगे कई सारे महावत अंकुश लिए सभी को नचाते हुए मर्यादाओं और अनुशासन की सीख दे रहे हैं और पेट को पिटारा और घर को भोग-विलासी संसाधनों का कबाड़ बनाए हुए लोग अपरिग्रह की सीख दे रहे हैं।
हालात सब जगह खराब हैं, होने दो। खुद को देखें, परिवर्तन लाएं। जो अच्छे हैं वे सच्चे बने रहें और यह प्रण ले लें कि आयन्दा खरा-खरा ही सुनेंगे और खरी-खरी कहने में जरा भी नहीं हिचकेंगे, चाहे सामने कोई कितने ही होर्स या डॉग पॉवर का इंसान क्यों न हो।
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