अक्सर बहुत सारे लोग हमेशा किसी न किसी बात पर अपनी मंशा व्यक्त करते है जहां रहते है वहां खुद की बात नहीं करते, दूसरों की बात करते हैं। इंसान की सबसे बढ़िया आदत यह होनी चाहिए कि वह खुद काम करें। दूसरों के अच्छे काम को सराहें। बुरे लोगों से दूर रहे और बुराई वाले कामों को हतोत्साहित करें।
इंसान को समाज, क्षेत्र और देश से बहुत सारी अपेक्षा रहती है और अपेक्षाओं के मामले में इंसान और परिवेश का संतुलन हमेशा विषम होकर गड़बड़ाने लगता है। जहां हम समाज, दूसरे लोगों, क्षेत्र और देश से अपेक्षा रखते हंै कि वे हमारे लिए कुछ करंे, हमारे लिए कुछ हो, हमंे तहे दिल से सोचना चाहिए कि हम अपने देश, अपने समाज, क्षेत्र और दूसरे लोगों के लिए क्या कर पा रहे हंै ?
इस समीकरण और अनुपात को जब आदमी समझ जाएगा तब आदमी भी देश के लिए जीने लगेगा और देश आदमी के लिए संरक्षक की भूमिका में हमेश बना रहेगा। वर्तमान समाज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम दूसरों से यह तो अपेक्षा रखते हंै कि और लोग हमारे काम आएं, हमारे लिए अंध भक्त होकर काम करें, अनुचर बनकर सेवा करें और दास की तरह जीवन जीते हुए हमंे सारे सुख, वैभव और सम्पन्नता लुटाते रहंे और हम मस्त होकर इन सभी का इतना आनंद लेते रहें कि लोग भी देखते रह जाए। हमारी सबसे बड़ी समस्या आजकल यह है कि हम औरों से बहुत अधिक अपेक्षा पालने लग गये हैं और हम किसी कि अपेक्षा पूरी करने की कसौटी पर कतई खरा नहीं उतर रहे हैं।
एक सामाजिक प्राणी होने के नाते हमारी यह प्राथमिकता होनी चाहिए जहां हम है वहां हमारी वजह से औरों को सुख प्राप्त हो, आनंद मिले, लोगों को यह लगे कि हमारी उपयोगिता है। जिस दिन हमारे भीतर यह बुद्धि आ जाएगी कि समाज जीवन का कोई सा क्षेत्र हो हमारी अपनी उपयोगिता और हमारा योगदान क्या है ?
बहुत से लोग अपने योगदान की चर्चा नहीं करते लेकिन दूसरों के योगदान को लेकर कभी नाराज होते है और कभी खिन्न हो जाते हंै। हम सभी को यह सोचना चाहिए कि हम सभी लोग सभी के लिए हंै, धरती के लिए हैं, परिवेश के लिए हंै, समाज के लिए और देश के लिए हैं। अगर इनमें से हम किसी के काम न आ पाए तो हमारा होना या ना होना एक दम व्यर्थ है।
जीवन में जिस किसी क्षण अपनी अपेक्षाएं पूरी न हो समाज और परिवेश की किसी घटना पर दुःख अनुभव हो, विषाद का मन बने तब सबसे पहले यह देखंे कि इसमे हमारी भूमिका क्या है ?
अक्सर बहुत से लोग तमाशबीन की तरह हो गए है और जब भी कोई विध्वंस और नकारात्मक क्रियाएं होती हैं तब उसी के अनुरूप प्रतिक्रियाएं करने का माद्दा दिखाते हंै और नकारात्मक को ओढ़े हुए नकारात्मकता का ही प्रसार करते रहते हैं।
हम सभी लोग इस बात को सोचें कि किस तरह समाज और देश को बढ़ा सकते हैं। उसके लिए कैसे काम आ सकते हैं। लेकिन हमारी दुविधा यह है या फितरत यह है कि हम समाज या देश के काम आने की बात से कही ज्यादा अपने काम के लिए चिंतित रहते हंै और जहां अपने स्वार्थ होते हंै वहां इंसान अपने ही अपने दायरों में भटकता रहता है।
बहुत से लोग है जो रोजाना चिल्लाते है कि अमुक आदमी काम नहीं करता, अमुख लोग काम नहीं करते, अमुक जगह काम नहीं होता, इन सभी विषयों को देखे और हम चिंतन करंेे कि जो कुछ हो रहा है उसे रोक पाने में या करने में हमारा योगदान कितना है।
हम अपनी ओर से धेला भर खर्च नहीं करना चाहते, किसी सामाजिक व्यवस्था या परिवेश्य प्रबंधों में हम अपनी भागीदारी निभाना नहीं चाहते, दूर से तमाशबीन की तरह बैठे रहकर चाहते हैं कि जो हम सोचते है वहीं सामने होना चाहिए।
हम चाहते हैं कि जो सोचें वही सामने वाले करें और इसी मानसिकता में जीते हुए हम ऐसे दृष्टा बने रहते हैं जो नकारात्मक चिंतन के साथ ही अपने आप को भाग्य विधाता या कर्मयोगी मानकर चलता रहता है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने आप को देखें या यह सोचंे कि हमारा अपना योगदान क्या है हमारा अगर किसी कर्म में योगदान नहीं है किसी क्रिया में योगदान नहीं है तो हमे उस विषय के बारे में बोलने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए क्यांेकि जिसमें हमारा योगदान नहीं, हमारी कोई भागीदारी नहीं, जिस में न हमारा पैसा लगा है, न हमारी बुद्धि लगी है, न परिश्रम, न समय।
तो उस विषय के बारे में बोलना, निंदा करना या आलोचना करना कुछ भी कहना हमारे स्वभाव के विपरीत है और ऐसा स्वभाग अच्छे इंसान को नहीं रखना चाहिए। जीवन में जहां कही काम कर रहे हंै जो कुछ कर रहे हैं वहां एक ही बात याद रखंे कि समाज हमंे जो कुछ दे रहा है, देश से हमंे जो प्राप्ति हो रही है उसका कर्ज चुका पाने का हम कितना अपनी भागीदारी निभा रहे हंै। इन सारी शंकाओं, समस्याओं का अपने आप निदान संभव है।
इंसान को समाज, क्षेत्र और देश से बहुत सारी अपेक्षा रहती है और अपेक्षाओं के मामले में इंसान और परिवेश का संतुलन हमेशा विषम होकर गड़बड़ाने लगता है। जहां हम समाज, दूसरे लोगों, क्षेत्र और देश से अपेक्षा रखते हंै कि वे हमारे लिए कुछ करंे, हमारे लिए कुछ हो, हमंे तहे दिल से सोचना चाहिए कि हम अपने देश, अपने समाज, क्षेत्र और दूसरे लोगों के लिए क्या कर पा रहे हंै ?
इस समीकरण और अनुपात को जब आदमी समझ जाएगा तब आदमी भी देश के लिए जीने लगेगा और देश आदमी के लिए संरक्षक की भूमिका में हमेश बना रहेगा। वर्तमान समाज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम दूसरों से यह तो अपेक्षा रखते हंै कि और लोग हमारे काम आएं, हमारे लिए अंध भक्त होकर काम करें, अनुचर बनकर सेवा करें और दास की तरह जीवन जीते हुए हमंे सारे सुख, वैभव और सम्पन्नता लुटाते रहंे और हम मस्त होकर इन सभी का इतना आनंद लेते रहें कि लोग भी देखते रह जाए। हमारी सबसे बड़ी समस्या आजकल यह है कि हम औरों से बहुत अधिक अपेक्षा पालने लग गये हैं और हम किसी कि अपेक्षा पूरी करने की कसौटी पर कतई खरा नहीं उतर रहे हैं।
एक सामाजिक प्राणी होने के नाते हमारी यह प्राथमिकता होनी चाहिए जहां हम है वहां हमारी वजह से औरों को सुख प्राप्त हो, आनंद मिले, लोगों को यह लगे कि हमारी उपयोगिता है। जिस दिन हमारे भीतर यह बुद्धि आ जाएगी कि समाज जीवन का कोई सा क्षेत्र हो हमारी अपनी उपयोगिता और हमारा योगदान क्या है ?
बहुत से लोग अपने योगदान की चर्चा नहीं करते लेकिन दूसरों के योगदान को लेकर कभी नाराज होते है और कभी खिन्न हो जाते हंै। हम सभी को यह सोचना चाहिए कि हम सभी लोग सभी के लिए हंै, धरती के लिए हैं, परिवेश के लिए हंै, समाज के लिए और देश के लिए हैं। अगर इनमें से हम किसी के काम न आ पाए तो हमारा होना या ना होना एक दम व्यर्थ है।
जीवन में जिस किसी क्षण अपनी अपेक्षाएं पूरी न हो समाज और परिवेश की किसी घटना पर दुःख अनुभव हो, विषाद का मन बने तब सबसे पहले यह देखंे कि इसमे हमारी भूमिका क्या है ?
अक्सर बहुत से लोग तमाशबीन की तरह हो गए है और जब भी कोई विध्वंस और नकारात्मक क्रियाएं होती हैं तब उसी के अनुरूप प्रतिक्रियाएं करने का माद्दा दिखाते हंै और नकारात्मक को ओढ़े हुए नकारात्मकता का ही प्रसार करते रहते हैं।
हम सभी लोग इस बात को सोचें कि किस तरह समाज और देश को बढ़ा सकते हैं। उसके लिए कैसे काम आ सकते हैं। लेकिन हमारी दुविधा यह है या फितरत यह है कि हम समाज या देश के काम आने की बात से कही ज्यादा अपने काम के लिए चिंतित रहते हंै और जहां अपने स्वार्थ होते हंै वहां इंसान अपने ही अपने दायरों में भटकता रहता है।
बहुत से लोग है जो रोजाना चिल्लाते है कि अमुक आदमी काम नहीं करता, अमुख लोग काम नहीं करते, अमुक जगह काम नहीं होता, इन सभी विषयों को देखे और हम चिंतन करंेे कि जो कुछ हो रहा है उसे रोक पाने में या करने में हमारा योगदान कितना है।
हम अपनी ओर से धेला भर खर्च नहीं करना चाहते, किसी सामाजिक व्यवस्था या परिवेश्य प्रबंधों में हम अपनी भागीदारी निभाना नहीं चाहते, दूर से तमाशबीन की तरह बैठे रहकर चाहते हैं कि जो हम सोचते है वहीं सामने होना चाहिए।
हम चाहते हैं कि जो सोचें वही सामने वाले करें और इसी मानसिकता में जीते हुए हम ऐसे दृष्टा बने रहते हैं जो नकारात्मक चिंतन के साथ ही अपने आप को भाग्य विधाता या कर्मयोगी मानकर चलता रहता है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने आप को देखें या यह सोचंे कि हमारा अपना योगदान क्या है हमारा अगर किसी कर्म में योगदान नहीं है किसी क्रिया में योगदान नहीं है तो हमे उस विषय के बारे में बोलने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए क्यांेकि जिसमें हमारा योगदान नहीं, हमारी कोई भागीदारी नहीं, जिस में न हमारा पैसा लगा है, न हमारी बुद्धि लगी है, न परिश्रम, न समय।
तो उस विषय के बारे में बोलना, निंदा करना या आलोचना करना कुछ भी कहना हमारे स्वभाव के विपरीत है और ऐसा स्वभाग अच्छे इंसान को नहीं रखना चाहिए। जीवन में जहां कही काम कर रहे हंै जो कुछ कर रहे हैं वहां एक ही बात याद रखंे कि समाज हमंे जो कुछ दे रहा है, देश से हमंे जो प्राप्ति हो रही है उसका कर्ज चुका पाने का हम कितना अपनी भागीदारी निभा रहे हंै। इन सारी शंकाओं, समस्याओं का अपने आप निदान संभव है।
Categories:
Editorial
Latest
Udaipur
Udaipur Distt
Udaipur Division
Udaipur News